आज भी मुझे वो मनहूस दिन याद है
जब इस कुदरत ने तुम्हें और मुझे जुदा कर दिया था
आज भी मुझे वो कातिलाना दिन याद है
जब मैं बस प्रकृति के खेल को बेबसी ओढ़े देख रहा था
मैं प्रकृति के आगाज़ को सुन परख ही नहीं पाया
मैं आनेवाले खतरे को भांप ही नहीं पाया
जब वो मौत के खूनी खेल को लिखा जा रहा था
जब मैं आनेवाले खतरे से अंजान था
जब "मम्मी" और "पप्पा" बोलना
मेरे भाग्य से छीन लिया गया था
जब मां और बाप को हमेशा के लिए
काल द्वारा झपट लिया गया था
तब लोगों ने ये सोचा था कि
तब लोगों ने ये माना था कि
अब इस नन्ही सी जान का क्या होगा
कैसे ये छोटा बच्चा बिना किसी सहारों के
बिना किसी बहारों के बड़ा होगा
लेकिन मां...
आज मैं बड़ा हो गया हूं
चाहे जैसे भी वो दिन गुजरे हो
जैसी भी वो राते काटी हो
चाहे जैसी भी वो तन्हाइयां रही हो
लेकिन सुन मां,
आज में जिम्मेदार हो गया हूं
तकलीफों से लड़ना सीख चुका हूं
अगर कोई साथ ना दे तो अकेले
अंजान रास्तों पर चलना सीख चुका हूं
पहले से ज्यादा संवर चुका हूं
पहले से ज्यादा निखर गया हूं
और थोड़ा सच ये भी है कि
तुम्हारे जाने के बाद थोड़ा बिखर भी गया हूं
कभी-कभी छोटी-छोटी जिद पे जगड़नेवाला में
अब थोड़ा जानदार हो गया हूं
लोगों के लिए जीनेवाला शानदार हो गया हूं
वैसे भले ही तुम मेरे पास नहीं हो
लेकिन मेरे हर एक एहसास में तुम बसती हो
मैं एक नांव हूं तो तुम उसकी कस्ती हो
जब बचपन में कभी भी मुझे चोट लगती थी
और मैं मां...मां चिल्लाता था
तब चोट तो मुझे लगती थी, पर दर्द तुम्हें ही होता था
जब कभी नादानियों में कभी मैंने जिद की थी
चाहे कैसी भी कठिनाइयां हो, पर तुम ही तो थी
जिसने पापा को बोलकर कि, बच्चा है यार
मेरी जिद को पुरी की थी
वैसे कभी मैंने बताया नहीं
कभी मैंने जताया नहीं
लेकिन जब कभी मुझे तुम्हारे बारे में पूछा जाता था
तब मेरे पास कुछ लब्ज़ ही नहीं होते थे
मैं बस यूं ही मौन बने खड़ा हो जाता था
मुझे आज भी याद है, जब मैं सातवीं कक्षा में था
और जब मां के बारे में पढ़ाया जा रहा था
तब तुम्हें ही याद करके
पता नहीं क्यों, पर आधे घंटे तक रो रहा था
जैसे सब कुछ होने के बावजूद कुछ अधूरा छूट रहा था
कुछ अधूरी ख्वाहिशें, मैं तराश रहा था
कुछ अधूरे सपनें, मैं रेत में ही बांध रहा था
कुछ माटी के महल, मैं बांध रहा था
कुछ पदचिह्न, मैं समंदर में छोड़ रहा था
जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ
समय से पहले ही मैं खड़ा हुआ
आगाज से पहले ही समझदार हुआ
समझदार बनते ही किसी से अंजान हुआ
तब कोई ऐसे शख्स की मैं तलाश कर रहा था
कोई ऐसे इंसान को मैं तराश रहा था
जो मुझे सही गलत की पहचान करवाये
दुनिया की वास्तविकता से मेरा मेल करवाये
ताल से ताल मिलाकर मुझसे खेल रचवाये
कड़वी यादों को मीठी यादों के साथ जोड़ जाये
जिंदगी के इस खेल में खेलना सिखाए
जिंदगी के रंगो में रंगना सिखलाए
प्यार के दीप जलाना बतलाए
लोगों के दुःख दर्द में भागीदार बनना बतलाए
मुझे कहीं घूमाने ले जाए
मुझे कहीं बगीचे में टहलने ले जाए
मुझे पांवभाजी और ढोसे के लुत्फ लेना सिखाए
मुझे लोगों के साथ गुलना मिलना बताए
मुझे चाहतें करना सिखाए
मेरे साथ हंसी खुशी के दो पल बिताए
मुझसे मेरा हाल चाल पूछ जाए
मेरे लिए पुरी दुनिया से भी भीड़ जाए
मेरे साथ आंख मिचौली का खेल खेले
मुझ पर मुझसे भी ज्यादा भरोसा करे
मुझ पर खुदसे भी ज्यादा विश्वास करे
मेरे जितने पर पूरे मोहल्ले में मिठाई बंटवाए
मेरे हारने पर मुझे प्रेरित करे
दोबारा खड़े होने की हिम्मत दे
या कभी कभार दिलासा भी दे
जो मुझे सही गलत की व्याख्या से व्याख्यायित कर प्रभावित करे
जिसकी गोद में, सिर रख मैं सुकून से सो सकूं
जिसकी गोद में, सिर रख मैं चैन से रो सकूं
बिन बोले भी जो मेरे होठों को पढ़ जाए
बिन कहे भी जो मेरे दिल को समझ पाए
खैर, कोई बात नहीं
ऐसा कोई तो मिल नहीं पाया
तुम जैसा कोई बन नहीं पाया
तो मैंने अकेले ही चलना सीख लिया
कभी खुदकी गलतियों से तो कभी
औरों के तजुर्बे से तैरना सीख लिया
कभी चोट लगी तो खुद ही मल्हम लगाना सीख लिया
कभी साइकिल से गिरा तो खुद ही खड़ा होना सीख लिया
कभी खाई से गिरा तो खुद ही बाहर निकलना सीख लिया
सब लोग तभी साथ देते हैं
सब लोग तभी तुम्हें अपनाते हैं
जब वक्त तुम्हारा होता है
जब वक्त तुम्हारे साथ होता है
इस बात की गहराइयों को परख लिया
बेवक्त, बेवजह कोई साथ खड़ा नहीं होता
कोई कंधे से कंधा मिलाकर बड़ा नहीं होता
इस बात की हकीकतों को खोज लिया
कभी वक्त ने रोने पर मजबूर किया
तो अकेले ही बांध कमरे में
किसी को भी बिन बतलाए रो लिया
पर मैंने कभी खुदको गिरने नहीं दिया
और गिरा, तो भी खुद ही संभाल लिया
मैंने कभी खुदको टूटने नहीं दिया
ना ही कभी खुदको कमजोर पड़ने दिया
सुख और दुःख तो बस और रेलगाड़ी की तरह होते हैं
एक के बाद एक आते जाते रहते हैं
कभी मेहमान बन तुम्हारे साथ बस जाते हैं
पर जो भी हो जाए, मुझे हार नहीं माननी
इस बात को खुद में समा लिया
और हा मां,
किसी और के भरोसे पर बैठे बिना
अब खुद ही जीना सीख लिया है
चाहे सुख हो या दुःख
चाहे आंधी आए या तुफान
हमेशा मुस्कुराना सीख लिया है
दूसरों के सुख दुःख में शरीक होना सीख लिया है
पर एक बात तो सत्य है
पत्थर की लकीर समान है
जो मैं चाहूं तो भी नहीं मिटा सकता
लाख इंकार करने पर भी नहीं जुटला सकता
असंख्य बार हाथ पांव मोड़ने पर भी
असंख्य बार मिन्नतें करने पर भी
तुमसे मिला नहीं जा सकता
तुम्हें रूबरू देखा नहीं जा सकता
मुझे आज भी तुम्हारी बहुत याद आती है
जो शब्द बन खिड़कियों से होकर डायरी बन निखार लाती है
तुमसे दूर होने की तड़प मुझे आज भी तड़पाती है
क्योंकि, मां एक शब्द नहीं है
मां एक वाक्या नहीं है
मां महज एक पुस्तक नहीं है
मां पर तो ग्रंथ लिखा जाए
फिर भी कम पड़ जाए
मां को किसी शब्द, कहेवत, वाक्या में संजोया जाए
फिर भी हम सोच ना पाए
ना सोचकर भी अनदेखा ना कर पाए
लाख कोशिशें करने पर भी वापिस ना बुला पाए
जिसे कभी जंजीरों में कैद ना किया जाए
कैद होकर भी जो मुक्त है
यादों में भी जो अनंत है
सूरज की जो पहली किरण है
युद्ध के वीरों की जो सनक है
भले ही...
ना कभी तुम्हें देखा हो
ना कभी तुम्हारा जिक्र हुआ हो
ना कभी तुम्हें प्रोत्साहन मिला हो
फिर भी मां...
तुम कितनी सुंदर हो
तुम भगवान से भी परे हो
तुम भगवान से भी पहले हो
बस कभी कभी यूं लगता है
कभी कभी एक आस दिल से होकर गुजरती है
कभी कभी ये आगाज सा लगता है
काश तुम मेरे साथ होती, काश तुम मेरा आज होती
काश तुम मेरा आनेवाला कल बनती
काश हर जन्म में तुम्हारा ही
बेटा होने का गर्व मुझे प्राप्त हो पाता
काश मुझे तुम्हारी सेवा करने का मौका मिल पाता
काश मैं तुम्हारे बुढ़ापे का सहारा बन पाता
और काश...
मैं तुम्हारा नालायक सा जिम्मेदार बेटा बन पाता
और आखिरी सांस भी तुम्हारी गोद में ही ले पाता