आखिर कब तक यूं ही सिर झुकाकर चलती रहेगी?
आखिर कब तक यूं ही सब चुपचाप सहती रहोगी?
आखिर कब तक यूं ही मुंह छिपाकर फिरती रहोगी?
आखिर कब तक यूं ही उनके तानों को सहती रहोगी?
आखिर कब तक यूं ही उनके अत्याचार सहती रहोगी?
आखिर कब तक... कब तक... कब तक...
माना, कि अर्धांगिनी हो तुम उसकी
लेकिन खरीद नहीं लिया है उसने तुम्हें
अगर हैसियत तुम्हारी कोडियों की है ... नजरों में उसकी
फिर वापिस जाना ही क्यों है तुम्हें ?
माना, कि एक पत्नी का दायित्व होता है
पति का हर हाल मे साथ निभाना
लेकिन जहां तुम्हारी कदर करनेवाला कोई नहीं
ऐसी जगह वापिस जाना ही क्यों है तुम्हें ?
माना, कि तुम अपनी सभी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रही हो
लेकिन क्या उसे अपनी सभी जिम्मेदारियों का अहसास है
अगर वो औरतों को पैरों की जूती समझ रहा है
फिर ऐसी जगह वापिस जाना ही क्यों है तुम्हें ?
माना, कि तुम अपने सास-ससुर का ख्याल रखती हो
और अगर कभी अनबन हो भी जाए
तो हमेशा अपनी मां की साइड लेना भी तो जरुरी नहीं
जो औरतों की अक्ल को घुटनों में ही तौलता हो
फिर ऐसी जगह वापिस जाना ही क्यों है तुम्हें ?
आखिर में, मैं बस इतना कहूंगा
औरतों की इज्जत करना जानता नहीं वो
तो इसकी क्या गारंटी है, कि वो तुम्हारी बेटी की भी कदर करेगा
तो ऐसे लोगों को मुंह लगाना ही क्यों है तुम्हें ?
और आखिर ये सब सहना ही क्यों है तुम्हें ?
आखिर कब तक ... ?
आखिर कब तक ... ?
आखिर कब तक ... ?