ये गुलामी का वो कलंक है
जो मिटते नहीं मिट पाएगा
अगर कलंक वो मिट गया
तो वो सवेरा नया लाएगा
गुलामी हो अगर शरीर से
तो वो चिड़िया बन, एक दिन उड़ जायेगी
पर गुलामी हो अगर मन से
तो वो सदियों तक, तुम में घर कर जायेगी
कितने ही लोग आए और गए इस दरियां में
कितने ही लोगों ने लहु बहाया अपने इस वतन में
कितने ही लोगों ने बेड़ियां तोड़नी चाहि अपनी मन-ए-गुलामी की
कितने ही लोगों ने जंजीरे तोड़नी चाहि अपनी मन-ए-सलामी की
कितने ही लोगों ने कोशिशें की
अपनी भारत मां की बेड़ियों को तोड़ने की
कितने ही लोगों ने लकलीफें ली
अपने इस वतन में लोगों से लोगों को जोड़ने की
आजादी के इतने साल गुजर जाने के बाद भी
75-80 सालों के ठहराव के बाद भी
इतनी कोशिशों, मिन्नतों के बाद भी
वो मन की गुलामी आज भी जिंदा है
कभी सड़क के किनारों पे
तो कभी राजमहल के जहाजों पे
वो मन की गुलामी आज भी जिंदा है