पता नहीं कौन सी मन्नतों में तुम मिल जाओ
पता नही कौन सी जन्नतों में तुम दिख जाओ
मैं तो हर रोज उसी मोड़ से गुजरता हूं मेरी जान
पर पता नहीं फिर तुम कब मुझमें खिल जाओ
तुम सुबह की आवाज लगती हो
मेरी आंखों की आगाज सी लगती हो
मेरी खिड़की की हवा सी लगती हो
अब तो आइनो में भी में तुम्हें देखने लगा हूं
क्योंकि तुम सुंदर ही इतनी लगती हो
किसी गाने की धुन हो जैसे तुम
किसी पंछी का सुर हो जैसे तुम
मेरे ख्वाबों का सुरूर हो जैसे तुम
अब तो पूजा भी तुम, अर्चना भी तुम
गंगा जमना सरस्वती भी हो जैसे तुम
मेरी प्रीत भी तुम हो
इन नयनों की मनमीत भी सिर्फ तुम ही हो
सांसों का समंदर भी तुम हो
आंखों का भवंडर भी तुम हो
और मेरे होठों के शब्द भी सिर्फ तुम ही हो
मेरे विचार बन मिलने आती हो जैसे मुझसे तुम
इस कलम की स्याही के रंग को निखारती हो जैसे तुम
पर किसी न किसी बहाने से मिलती रहती हो मुझसे तुम
कभी मेरे लिए तड़पती रहती हो जैसे तुम
तो कभी बिन वजह ही तड़पाती रहती हो मुझे तुम
में जब लिखने बैठता हूं
चारों ओर तुम्हें ही पाता हूं
कभी मोबाइल फोन पर
तो कभी मेरे सामने पड़ी खुरशी पर
में सिर्फ और सिर्फ तुम्हें ही पाता हूं
कभी तितली बन मुझे छूकर निकल जाती हो
तो कभी मच्छर बन मेरे नाक में दम कर देती हो
पर जो भी हो, जैसा भी हो
मुझे फक्र है इस बात का मेरी दिलरुबा
कि जितना प्यार में तुमसे करता हूं
उससे कईं ज्यादा प्यार तुम मुझसे करती हो